बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
उत्तर -
पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध
पुरुषार्थ मनुष्य को समाज में स्थापित होने का अच्छा अवसर प्रदान करता है। पुरुषार्थ मनुष्य को उस शक्ति की ओर इंगित करता है जिससे वह पिण्ड ब्रह्मण्ड की पहचान में समर्थ होता है। क्योंकि ब्रह्मण्ड के तत्व को पहचानना ही पुरुषार्थ है। पुरुष हम उसे ही कह सकते है जिसमें विवेक, बुद्धि तथा संकल्प की स्वतंत्रता निहीत हो। इस अर्थ में विश्व के सभी प्राणी पुरुष नहीं माने जा सकते हैं। केवल मनुष्य ही 'पुरुष' हैं। मनुष्य में ही विवेक, बुद्धि एवं संकल्प स्वतंत्रता की भावना निहित रहती है। इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि पुरुषार्थ का सम्बन्ध विवेकशील प्राणी मनुष्य से ही है।
पुरुषार्थ शब्द की उत्पत्ति 'पुरुष' और 'अर्थ' इन दो शब्दों के संयोग से ही हुई है। 'पुरुष' शब्द का अर्थ है विचारवान, विवेकशील प्राणी तथा 'अर्थ' का तात्पर्य है 'लक्ष्य' 'पुरूषार्थ' शब्द का तात्पर्य है 'विवेकशील प्राणी का लक्ष्य'। पुरुषार्थ का 'अर्थ' सांसारिक और पारलौकिक लक्ष्य और कर्तव्य है जिसमें नैतिक, आर्थिक, मनोशारीरिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का भी समन्वय किया गया है। पुरुषार्थ के अन्तर्गत मनुष्य भौतिक सुखों का उपभोग करते हुए धर्म का भी समान रूप से अनुसरण करके मोक्ष का अधिकारी होता है। भारतीय धर्म तथा दर्शन में मोक्ष से मानव जीवन सार्थक बनाया जा सकता है। भारतीय धर्मशास्त्रों में चार प्रकार के पुरुषार्थो का विवेचन किया गया है। ये हैं- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्धों की व्याख्या पुरुषार्थ में बड़े विस्तार से की गयी है। पुरुषार्थ के अन्तर्गत आध्यात्मिक वृत्तियाँ मनुष्य को सात्विक विस्तार से की गयी है। पुरुषार्थ के अन्तर्गत आध्यात्मिक वृत्तियाँ मनुष्य को सात्विक और निःस्वार्थ जीवन जीने के लिए प्रेरित करती हैं। वस्तुतः जीवन में भौतिक सुख और आध्यात्मिक सुख दोनों का महत्व है तथा दोनों का समन्वित रूप जीवन को उन्नत करता है। अतः भारतीय नीतिशास्त्र इन दोनों प्रवृत्तियों का सन्तुलित तथा समन्वित रूप है, जिसे पुरुषार्थ कहते है। भौतिक सुख के अन्तर्गत धर्म तथा मोक्ष हैं। पुरुषार्थ में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों तत्व निहित है। इसके अन्तर्गत मनुष्य लौकिक उपभोग के साथ धर्म का अनुसरण करते हुए ईश्वरोन्मुख होकर मोक्ष प्राप्त करता है। हिन्दू नीतिशास्त्र के अनुसार जीवन और मृत्यु से छुटकारा पाना और ईश्वर के समीप पहुँचना ही मोक्ष है। यही मानव जीवन के परम लक्ष्य को अधिक महत्व देता है तथा मानव जीवन को सामने रखकर आश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत पुरुषार्थ को कर्तव्यनिष्ठा का सार्थक दायित्व मानता है।
चारों पुरुषार्थ मानव मूल्य के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या करते हैं, धर्म मानव को सन्मार्ग का दिग्दर्शन कराता है। धर्म के माध्यम से मनुष्य नैतिक सिद्धान्तों, विवेकशील प्रवृत्तियों और क्रियाओं को समझने में समर्थ होता है। धर्म, चर्म की अपेक्षा अधिक व्यापक है। शरीर को अर्थ की उसी प्रकार आवश्यकता होती है जिस प्रकार आत्मा के लिए मोक्ष, बुद्धि के लिए धर्म तथा मन के लिए काम की आवश्यकता होती है। अर्थ को ससांरिक जीवन का मूल कहा गया है। अर्थ के बिना मानव जीवन संभव नहीं है। काम का प्रमुख लक्ष्य सन्तानोत्पत्ति व वंशवृद्धि करना है। काम का सर्वोच्च और आध्यात्मिक लक्ष्य पति-पत्नी में आध्यात्मिकता, मानव-प्रेम, परोपकार तथा सहयोग की भावनाओं का विकास करना है। काम शब्द से कला सम्बन्धी भाव, विलास, ऐश्वर्य तथा कामनाओं का भी बोध होता है। काम जीवन का प्रमुख अंग है किन्तु इसका अतिरेक भयंकर दुर्गुण है। काम के वशीभूत होकर धर्म नहीं छोड़ना चाहिए। मोक्ष से धर्म का प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। मोक्ष की प्राप्ति सभी व्यक्तियों को नही हो पाती है, इसी कारण त्रिवर्ग की संयोजना करके उसके पालन का निर्देश दिया गया है। जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। मोक्ष के लिए मन और मस्तिष्क की शुद्धता आवश्यक है। मानव अपनी विभिन्न प्रकृति के कारण सांसारिक जीवन में प्रवृत्त रहता है। जब वह अपने कर्त्तव्यों, सत्कर्मों तथा सद्व्यवहारों से त्याग का मार्ग अपनाता है, तब वह निवृत्त हो जाता है।
मानव जीवन के सर्वागीण विकास के लिए पुरुषार्थ व्यक्तिगत, भौतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक जीवन के बीच सम्यक समन्वय स्थापित करता है। मानव जीवन के चरम लक्ष्य व उच्चतम आदर्शों की प्राप्ति की दिशा में पुरुषार्थ मार्गदर्शन करता है। यह मानव व्यक्तित्व और समाज के निर्माण का आधार है। पुरुषार्थ के अन्तर्गत धर्म को महत्व प्रदान करके मानव जीवन के नैतिक पक्ष को सुदृढ़ बनाया गया है। पुरुषार्थ द्वारा लौकिक तथा पारलौकिक उद्देश्यों एवं आदर्शों के बीच सामंजस्य स्थापित किया गया है। पुरुषार्थ के माध्यम से व्यक्ति नैतिक, धार्मिक, सामाजिक और आध्यात्मिक उत्तरदायित्वों को क्षमतापूर्वक निभाने में सफल होता है।
निष्कर्षतः पुरुषार्थ से ही मनुष्य के बौद्धिक, नैतिक, शारीरिक, भौतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास के अन्तर्सम्बन्ध स्थापित होते हैं। मनुष्य लौकिक जीवन के प्रति जागरूक होते हुए पारलौकिक जीवन के प्रति उत्कंठित रहता है। वह अपने क्रियात्मक जीवन की अभिव्यक्ति धार्मिक भावना और आचारगत नैतिकता के द्वारा करता है। इस दृष्टि से पुरुषार्थ लोक और परलोक दोनों के निमित्त किये जाने वाले कर्म में आस्था रखता है तथा दोनों में समन्वय करने का प्रयास करता है। भौतिक और आध्यात्मिक समृद्धि के बीच का सन्तुलित दृष्टिकोण ही पुरुषार्थ का सच्चा स्वरूप है। यह मध्यम मार्ग है। जिस पर चलकर मनुष्य अपने जीवन का वास्तविक सुख और
तद्नुरुप उद्देश्यों को प्राप्त करता है तथा अन्त में परमब्रह्रा की ओर उन्मुख होकर मोक्ष की ओर अग्रसर होता है, जो उसके जीवन का चरम लक्ष्य है।
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